भीड़भाड़ वाली इंदौर की सड़कों पर अगर आप ध्यान से देखेंगे, तो आपको एक ऐसी महिला दिखेगी जो 79 की उम्र में भी रोज़ खाना पका रही हैं — न थकी हैं, न झुकी हैं। उन्होंने ज़िंदगी का आधा हिस्सा भारतीय सेना को दिया, और अब बचा हुआ हिस्सा इंदौर की जनता को प्यार, मेहनत और सादगी से बना खाना खिलाने में लगा दिया है। यह कहानी है एक पूर्व महिला सैनिक अम्मा की — जो आज भी मोर्चे पर हैं, बस लड़ाई अब भूख और खुद्दारी की है।
उम्र की नहीं, आत्मा की सुनती हैं अम्मा
जब हम 79 की उम्र की कल्पना करते हैं, तो एक बुज़ुर्ग चेहरा, कमज़ोर शरीर और आराम की ज़रूरत हमारी आंखों में उतरती है। लेकिन अम्मा इन सबको नकारती हैं। उन्होंने कभी अपने जीवन को "retirement" के रूप में नहीं देखा — उनके लिए सेवा करना ही जीवन का दूसरा नाम है।
सेना से रिटायर होने के बाद ज़्यादातर लोग आराम करने लगते हैं। लेकिन अम्मा ने चुना कि वो खुद को व्यस्त रखें, खुद्दार बनें और फिर से समाज के बीच में लौटें — इस बार एक छोटे से फूड स्टॉल की मालकिन बनकर, जिसे वो पूरी शिद्दत और गरिमा से चलाती हैं।
खाना सिर्फ भूख नहीं मिटाता, आत्मा भी जोड़ता है
अम्मा का फूड आउटलेट fancy नहीं है। वहां ना digital board हैं, ना इंस्टाग्राम reels की सेटिंग। लेकिन वहां है — घर जैसा स्वाद, मां जैसे हाथ और सैनिक जैसा अनुशासन।
हर सुबह वो खुद आकर सब्ज़ियां काटती हैं, चावल तैयार करती हैं, और खाने की थाली में वो बात होती है जो बड़े-बड़े होटलों में भी नहीं मिलती — इंसानियत की खुशबू।
लोग कहते हैं कि अम्मा का खाना सिर्फ पेट नहीं भरता, दिल भी भर देता है।
अकेली नहीं हैं वो — इंदौर ने उन्हें गले लगाया
जब एक लोकल फूड व्लॉगर ने उनका वीडियो शेयर किया, तो अम्मा रातोंरात सोशल मीडिया पर छा गईं। वीडियो में वो शांत, सीधी-सादी, लेकिन तेज़ निगाहों वाली महिला अपने ठेले पर खाना परोसती दिखीं। उस वीडियो ने लाखों लोगों को कुछ पल के लिए रोक दिया — किसी ने उन्हें दादी कहा, किसी ने inspiration।
अब हर दिन वहां भीड़ लगती है — कोई सिर्फ खाने के लिए नहीं आता, बल्कि अम्मा को देखने, उनकी बात सुनने और कभी-कभी उनके पैर छूने तक आ जाता है।
समाज ने सवाल उठाए, पर अम्मा ने जवाब नहीं — खाना दिया
कुछ लोगों ने शुरू में सवाल उठाए —
"बच्चे नहीं हैं?"
"इस उम्र में काम करने की ज़रूरत क्या?"
"ये तो दुख की बात है…"
लेकिन अम्मा ने किसी को जवाब नहीं दिया। उन्होंने जवाब दिया अपने हाथ से बने पराठों से, दाल से, और अपने मुस्कराते चेहरे से।
उनकी खामोशी में वो ताकत है जो सिर्फ एक फौजी में होती है — बोलने की नहीं, करने की आदत।
आज का युवा जब थक जाए, तो अम्मा को देखे
जहां आज की पीढ़ी burnout, stress और anxiety से जूझ रही है, अम्मा अपने काम में शांति ढूंढ़ती हैं।
न कोई शोर, न कोई complain —
बस अपना ठेला, अपनी थाली, और वो मुस्कान, जो हर ग्राहक को एक सीख देती है —
“कोई भी काम छोटा नहीं होता, और हौसला थकता नहीं।”
उनके लिए ये सिर्फ दुकान नहीं है — ये उनकी daily parade है, जहां वो punctuality, discipline और सेवा की परंपरा निभा रही हैं।
पैसा कम, प्यार ज़्यादा मिलता है
इस स्टॉल से अम्मा को करोड़ों नहीं मिलते — पर जो मिलता है, वो शायद आज के किसी भी influencer से ज़्यादा कीमती है:
सम्मान, अपनापन, और एक पहचान।
बच्चे उन्हें “अम्मा” कहकर बुलाते हैं, युवा उनके हाथ से बना खाना social media पर डालते हैं, और बुज़ुर्ग उन्हें देख कर खुद को कमज़ोर नहीं समझते।
बस इतनी सी बात है —
अम्मा हर दिन एक सबक देती हैं, बिना कुछ कहे।
वो कहती नहीं, पर दिखा देती हैं कि:
“जब इरादे मजबूत हों, तो उम्र सिर्फ एक संख्या होती है — और सम्मान वो नहीं जो कोई देता है, बल्कि जो आप खुद बनाते हो।”


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