उस दिन धूप थोड़ी ज़्यादा थी। लेकिन तस्वीर में जो चमक थी, वो सूरज की नहीं — एक बाप की आंखों में झलकती गर्व की रौशनी थी।
2025 की गर्मियों में एक तस्वीर वायरल हुई, जिसमें एक बाप अपने सब्ज़ी के ठेले को किनारे खड़ा करके अपनी बेटी के साथ ग्रेजुएशन गाउन में खड़ा था। बेटी के हाथ में डिग्री थी, बाप की आंखों में पानी। सोशल मीडिया ने इस तस्वीर को #RealHero से नवाज़ा — लेकिन इसके पीछे की कहानी और भी बड़ी है।
जब बेटी ने किताबें उठाईं, बाप ने ठेला
गाज़ीपुर के छोटे से गांव से आने वाली सविता बचपन से पढ़ाई में तेज़ थी। लेकिन घर में हालात ऐसे नहीं थे कि शहर जाकर पढ़ सके। बाप रामस्वरूप यादव सब्ज़ी बेचकर घर चलाते थे।
"लड़की है, ज्यादा पढ़ा के क्या करेगा" — गांववालों की यही सोच थी।
लेकिन रामस्वरूप ने ठान लिया था — "मेरी बेटी सिर्फ स्कूल नहीं जाएगी, कॉलेज भी जाएगी... और डिग्री लेकर ही लौटेगी।"
संघर्ष के वो साल
सुबह ठेला लगाना
दोपहर को सब्ज़ी मंडी
रात को बेटी के लिए लैंप की रोशनी में पढ़ाई का इंतज़ाम
सविता ने भी हार नहीं मानी। Government college में B.Sc. Physics में admission मिला। Scholarship मिली, लेकिन बाकी खर्च आज भी रामस्वरूप के पसीने से ही आता था।
"पापा कभी खुद के लिए चप्पल नहीं लेते थे, लेकिन मेरी किताबों की लिस्ट पहले खरीदते थे।"
वो तस्वीर, जो इंडिया की तस्वीर बन गई
Graduation Day पर कॉलेज ने parents को invite किया था। बाकी बाप- बेटे कार में आए, सूट-बूट में आए। और रामस्वरूप आया अपने पुराने कुर्ते और ठेले के साथ।
"मुझे शर्म नहीं, गर्व है कि मैं सब्ज़ी बेचता हूं और मेरी बेटी आज graduate है।" — रामस्वरूप
एक फोटोग्राफर ने ये तस्वीर क्लिक की और अपलोड कर दी। बस फिर क्या था — ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक सब जगह ये वायरल हो गई।
लोगों की प्रतिक्रिया:
"इस आदमी को सलाम! यही असली बाप है।"
"इनके लिए कोई Padma Award क्यों नहीं?"
"मुझे अब अपने बाप की sacrifice और ज़्यादा समझ आती है।"
और फिर...
इस फोटो ने मंत्री तक का ध्यान खींचा। राज्य सरकार ने सविता को आगे की पढ़ाई के लिए फेलोशिप दी। रामस्वरूप को सम्मानित किया गया। लेकिन उन्होंने बस इतना कहा —
"सम्मान से पेट नहीं भरता बेटा, लेकिन अगर कोई और बेटी भी पढ़ ले इस तस्वीर को देखकर, तो मेरी मेहनत सफल हो जाएगी।"
ये सिर्फ एक बाप नहीं, पूरा देश है
रामस्वरूप जैसे हज़ारों पिता हैं जो बिना पोस्ट, बिना लाइक, बस अपने बच्चों के लिए जीते हैं। उनकी कहानियां किताबों में नहीं, आंसुओं में लिखी जाती हैं।
सविता की डिग्री सिर्फ कागज़ नहीं — उस पर हर दिन की मेहनत की स्याही लगी है।
और वो तस्वीर... शायद अब भी किसी और पिता के दिल में "मैं भी कर सकता हूं" का सपना बो रही है।

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